Tuesday, 6 June 2017

जल संकट-जीवन संकट



देश में इस समय गर्मी तो चरमसीमा पर है ही, सूखे की त्रासदी  भी विकट रूप से सामने आ रही है। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी कुछ गाँव-मजरे ऐसे भी हैं जो रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह जल संकट से निरापद हैं। असल में यहां के लोग पानी जैसी बुनियादी जरुरत के लिए सरकार पर निर्भरता और प्रकृति को कोसने की आदत से मुक्त हैं । इन लोगो ने आज की इंजीनियरिंग और डिग्रीधारी ज्ञान के बजाय पूर्वजो के देशज ज्ञान पर ज्यादा भरोशा किया । हमें यह जानना चाहिए कि वैदिक काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न कालखंडो में समाज के द्वारा अपनी जरूरत के मुताबिक बनाई गई जल संरचनाओं और जल प्रणालियों के  अस्तित्व के अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें तालाब सभी जगह मौजूद रहें हैं । रेगिस्तान में तो तालाबो को सागर की उपमा दे दी गई है ।ऋग्वेद में सिंचित खेती , कुओं और गहराई से पानी खींचने वाली प्रणालियों का उल्लेख मिलता हैं। कौटिल्य के अर्थशाश्त्र में भी जल संरचनाओं के बारे में अनेक विवरण उपलब्ध हैं। इन विवरणों से पता चलता है कि तालाबों का निर्माण राज्य की चमीन पर होता था।  स्थानीय लोग तालाब निर्माण की सामग्री जुटाते थे। असहयोग और तालाब को नुकसान पहुंचाने वालों पर राजा द्वारा जुर्माना लगाया जाता था ।
जो लोग इस समय 44-45 डिग्री तापमान के कारण सूख गए ताल-तलैयों, नदी –नालों को सवारने में लग गए हैं वे पानी की कमी से उत्पन्न होने वाली समस्यायों से मुक्ति यज्ञ कर रहें हैं । आमतौर पर हमारी सरकारें बजट का रोना रोती हैं कि पारंपरिक जल  संसाधनों की सफाई के लिए बजट का टोटा है। अधिक खर्चीला काम नही है। इसके लिए भारी भरकम मशीनों की भी जरुरत नहीं होती हैं। तालाबो की गाद सालो साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ट पदार्थो की देन होती है । यह उम्दा दर्जे की खाद है । रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट कर दीया है , यह किसान जान चुके हैं और अब उनका रूख कंपोस्ट एवं अन्य देशी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खाद रुपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं । राजस्थान के झालवाड़ जिले में खेतों मे पालिश करने के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल और लोकप्रिय है। कर्नाटक में समाज के सहयोग से करीब 50 तालाबो का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई यानी ढुलाई करने वाले ने इस मुफ्त कीमती खाद को बेचकर पैसा कमाया। इससे एक तो खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही तालाबों के रखरखाव से सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है। सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और तालाबों के संरक्षण की दिली भावना हो तो न तो तालाबों में गाद बचेगी और न ही सरकारी अमलों में घूसखोरी की कीच़ होगी।
जल संकट से जूझ रहे समाज ने नदी को तालाब से जोड़ने , गहरे कुओं से तालाब भरने , पहाड़ पर नालियां बना कर उसका पानी तालाब में जुटाने जैसे अनगिनत प्रयास किए हैं और प्रकृति के कोप पर विजय पाई है। यह जरूरी है कि लोग अपने मुहल्ले कस्बों के पारंपरिक जल संसाधनों-तालाबों , बावड़ी, कुओं की सुधि लें। उनकी सफाई, मरम्मत का काम करें । बस एक बात ख्याल करना होगा कि पारंपरिक चलस्रोतों को गहरा करने में भारी भरकम मशीनों से परहेज ही करें । मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानीं गौर करें। एक अर्सा पहले यहां सूखा राहत के तहत तालाब गहराई का काम हुआ। इंजीनियर राहब ने तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खुदाई करवादी । जब पानी बरसा तो तालाब एक रात में ही लबालब हो गया , लेकिन , अगली सुबह ही उसकी तली दिखने लगी। असल में बगैर सोचें समझे की गई खुदाई में तालाब की वह झिर टूट गई , जिसका संबंध सीधे इलाके की ग्रेनाइट संरचना से था। पानी आया और झिर से बह गया । तालाब महज एक गड्ढा नही हैं जिसमें बारिस का पानी जाम हो जाए और लोग इस्तेमाल करने लगें। तालाब कहां खुदेगा इसको परखने के लिए वहां की मिट्टी , जमीन पर जल आगमन एवं निगमन की व्यवस्था एवं स्थानीय पर्यावरण का खयाल रखना भी जरूरी होता है वरना यह भी देखा गया है ग्रेनाईट संरचना वाले ईलाको में कुएं या तालाब खुदे रात में पानी भी आया और कुछ ही घंटो मे कहीं बह गया । इसी तरह यदि बगैर सोचे समझे पीली या दुरमट मिट्टी में तालाब खोदा तो धीरे-धीरे पानी जमीन में बैठेगा ,फिर दलदल बन जाएगा । क्या हम जानते है कि अभी एक सदी तक पहले बुंदेलखण्ड मे तालाबो की देख रेख का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते थे और उसके जल आवाक को सहेजते थे । बदले में तालाब की मछली सिघाड़े आदि पर इनका अधिकार होता था । इस तरह प्रत्येक इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा एक वर्ग ने उठा रखा था ।उसकी रोजी रोटी की व्यवस्था वही करते थे जो तालाबों के जल का इस्तेमाल करते थे । तालाब को लोक की संस्कृति-सभ्यता का अभिन्न अंग हैं । इन्हें सरकारी बाबुओं की बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता हैं । यह जान ले की रेल से पानी पहुंचाने जैसे प्रयोग तत्कीलिक उपाय भर हैं । बढ़ती आबादी जल की जरूरत में इजाफा और जलवायु परिवर्तन के अबूझ खेल के सामने लोक विज्ञान की जल संरक्षण नीतियों की शरण में जाना ही एक मात्र निदान हैं।
अगर किसी बड़े बांध पर हो रहे समूचे व्यय के बराबर राशि एक बार एक साल विशेष अभियान चलाकर पूरे देश के पारंपरिक तालाबों को सवारने उन्हे अतिक्रमण से मुक्त करने उनकी गाद हटाने पानी के आवक जावक के रास्ते को निरापाद बनाने में खर्च कर दिया जाए तो भले ही कितनी कम बारिश हो न तो देश का कोई कंठ सूखा रहेगा और न ही जमीन की नमी खत्म होगी।

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